Ashwagandha

परिचय:ashwagandha

कुल-कण्टकारी-कुल (सोलेनेसी-Solanaceae)।

नाम-लेटिन-विथैनिया सॉम्निफेरा (Withania somnifra (Linn.) Dunal)।

संस्कृत-अश्वगंधा( ashwagandha) वराहकर्णी,

हिन्दी असगंध

स्वरूप-इसका झाड़ीदार रोमश क्षुष १-५ फुट ऊंचा होता है।

शाखायें गोलाकार, चारों ओर फैली रहती हैं।

पत्र– एकान्तर, २-४ इन्च लंबे, लट्‌वाकार, श्वेतरोमण होते हैं।

पुष्पों के पास पत्ते छोटे एवं अभिमुख होते हैं। पुष्प- पत्रकोणोद्भूत, पीताभ हरित, चिलम के आकार के गुच्छों में रहते हैं।

फल– २.५-३ इन्च व्यास के, गोलाकार, रसभरी के सदृश कवच के भीतर तथा पकने पर लाल हो जाते हैं।

बीज छोटे, पीले, वृक्काकार, चिकने और चपटे होते हैं।

मूल– ऊपर से धूसर, भीतर श्वेत, दृढ़, अंगुलिसदृश मोटे तथा 1_1.5 फुट तक लंबे होते हैं। कच्चे मूल से अश्व के सदृश गन्ध आती है इसलिए इसे ‘अश्वगन्धा’ कहते हैं (इसके सेवन से अश्व के समान उत्साह प्राप्त होता है इसलिए भी इसका नाम सार्थक है)।

शरऋतु में पुष्प तथा बाद में फल आते हैं। बरसात में इसके बीज बोये जाते हैं तथा जाड़े में फसल निकाल ली जाती है।

उत्पत्तिस्थान – यह भारत में पश्चिमोत्तर भारत, महाराष्ट्र, गुजरात, राज- स्थान, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश तथा पंजाब और हिमालय में ५००० फीट की ऊंचाई तक पया जाता है। मध्यप्रदेश के मन्दसोर जिले की मनासा तहसील में इसकी सर्वाधिक खेती की जाती है जहाँ से प्रायः इसकी व्यापारिक आपूत्ति होती है।

रासायनिक संघटन– इसके मूल से cuseohygrine, anahygrine, tropine, anaferine आदि १३ क्षाराभ निकाले गये हैं। कुल क्षाराभ ००.१३-०-.३१% होता है। इसके अतिरिक्त, ग्लाइकोसाइड, विठानिआल, अम्ल, स्टार्च, शर्करा तथा एमिनो एसिड पाये जाते हैं

Ashwagandha के उपयोग – कफवातज विकारों में प्रयुक्त होता है।

गलगण्ड, ग्रन्थिशोथ आदि में इसके पत्र या मूल का लेप करते हैं। इसके मूल से सिद्ध तैल का अभ्यंग दौर्बल्य और वातव्याधि में करते हैं।

मूर्च्छा, भ्रम, अनिद्रा आदि में प्रयुक्त होता है।

उदरविकार (फूल. विष्टम्भ आदि) तथा कृमि में देते हैं।

रक्तभाराधिक्य , रक्तविकार एवं शोथ में दिया जाता है।

कास-श्वास में देते हैं। श्वास में असगंध का क्षार मघु एवं घृत के साथ देने का विधान है ।

शुक्रदुर्बलता तथा प्रदर एवं योनिशूल में देते हैं।

मूत्रघात में प्रयुक्त होता है।

Ashwagandha ke उपयोग त्वचा – श्वित्र, कुष्ठ आदि में देते हैं।

क्षय, शोष, विशेषतः बालशोष में यह अधिक लाभकर हैं।

प्रयोज्य अंग – मूल ।

मात्रा-चूर्ण-३-६ ग्रा०; क्षार-१-२ ग्रा०

विशिष्ट योग- अश्वगंधादि चूर्ण, अश्वगंधारसायन, अश्वगंधाधृत, अश्वगंधारिष्ट ।

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