परिचय
कुल– मधूक-कुल (सैपोटेसी-Sapotaceae ) नाम-ले ०-मधूका इण्डिका (Madhuca indica J. F. Gmel.); सं०-मधुक, गुडपुष्प, हि० महुवा, ; त० इलुया; butter tree
स्वरूप– यह ४०-५० फीट ऊंचा वृक्ष होता है। त्वक् कृष्णाभ घूसर, फटी हुई, अन्तःकाष्ट रक्ताभ होता है। पत्र-५-६ इन्च लंबे, १३-४३ इन्च चौड़े, अंडाकार- आयताकार, चर्मवत्, १०-१२ सिराओं से युक्त, शाखाओं के अग्र पर समूहबद्ध होते हैं। पुष्प-पीताभ श्वेत, मांसल और रसमय, शाखाग्र के निकट गुच्छों में होते है बाह्यकोणत्-चर्मवत् होता है। फल-अंडाकार, १-२ इंच लंबा, कच्चे में हरा तथा पकने पर पीला या नारंगी हो जाता है। फल में १-४, गहरे भूरे रंग के, चमकीले, १-१२ इन्च लंबे बीज होते हैं। ग्रीष्म के आरंभ में पुष्प आते हैं तथा वर्षा में फल पकते हैं। बीजों से तेल निकालते हैं तथा पुष्पों से देशी मद्य प्रस्तुत करते हैं।
जाति– एक प्रजाति जो जलीय प्रदेश में विशेषतः दक्षिण भारत में होती है’जलमधूक’ या ‘मधूलक’ कहलाती है। इसका लेटिन नाम B. longifolia (Koenig) Macb. है। व्यापार में दोनों प्रजातियाँ मिली-जुली चलती है।
उत्पत्तिस्थान – यह भारत में सर्वत्र ४ हजार फीट की ऊंचाई तक होता है।रासायनिक संघटन-पुष्प में इक्षुशर्करा २.२%, आवर्त्तणर्करा ५२०६%, सेल्युलोज २.४%, अलब्युमिनायड २.२% भस्म तथा जल होते हैं। बीजों में ५० से ५५ प्रतिशत स्थिर तैल, वसा, कषायद्रव्य, सैपोनिन, अलब्युमिन, गोंद, स्टार्च पिच्छिल द्रव्य तथा भस्म होते हैं। भस्म में सिलिसक अम्ल, स्फुरकाम्ल तथा गंधकाम्ल, चूना, लौह, पोटाश और सोडा होते हैं। पुष्प में किण्वत्तत्त्व तथा किण्व भी होते हैं जिससे उसकी शर्करा शीघ्र मद्य में परिणत हो जाती है। पत्तियों में भी सैपोनिन होता है।
गुण-गुरु, स्निग्धविपाक – मधुर शुष्क पुष्प उष्ण होते हैं।गुणरस-मधुर, कषाय वीर्य – शीतकर्मदोषकर्म- यह वातपित्तशामक है।
उपयोग
तैल वेदनास्थापन तथा कुष्ठध्न है। पुष्पस्वरस स्नेहन है। नाडिबल्य और वातशामक है।पाचनसंस्थान – तृष्णा निग्रहण, स्नेहन, अनुलोमन तथा स्तम्भन है।रक्तवह संस्थान – रक्तपित्तशामक है, फल अहृद्य है।श्वसनसंस्थान – कफनिःसारक है।प्रजननसंस्थान – वृष्य और स्तन्यजनन है। बाजमज्जा आत्तंवजनन है।मूत्रवहसंस्थान – मूत्रल है।तापक्रम – दाहप्रशमन है। सात्मीकरण – बल्य, वृंहण है।प्रयोगदोषप्रयोग-यह वातपैत्तिक विकारों में प्रयुक्त होता है।संस्थानिक प्रयोग-बाह्य-बीजों का तेल वातव्याधि तथा चर्मरोगों में लगाते हैं। पैत्तिक शिरोरोगों में मधूकस्वरस का नस्य देते हैं , वातव्याधि में सूखे महुए के पुष्पों का क्षीरपाक देते हैं।
संस्थान-तृष्णा, कोष्ठगत वात, अतिसार-ग्रहणी, में पुष्पस्वरस तथा त्वक्वाथ देते हैं ।रक्तवहसंस्थान – रक्तपित्त में ताजे पुष्पों का स्वरस देते हैं।श्वसनसंस्थान – कास, श्वास और हिक्का में देते हैं।प्रजननसंस्थान – शुक्रदौर्बल्य में तथा स्तन्यवृद्धि के लिए प्रयुक्त होता है।बीजमज्जा की वत्ति रजोरोध में देते हैं।मूत्रवहसंस्थान – मूत्रकृच्छ में उपयोगी है।तापक्रम – ज्वर और दाह में लाभकर है।सात्मीकरण – दौर्बल्य, क्षय और शोष में प्रयुक्त होता है।
प्रयोज्य अंग-पुष्प, बीज, तैल ।मात्रा – पुष्पस्व रस-१०-२० मि० लि०, त्वक्वाथ-५०-१०० मि० लि० ।
विशिष्ट योग-मधूकासव